Tuesday, November 2, 2010

तीन मुक्तक


होली से 
दीवाली तक 























आत्म-केन्द्रित जग सीमित है अपनी ही खुशहाली  तक
अर्थहीन     शब्दों  से    लेकर  चिन्तन   की कंगाली तक
ऋतु-परिवर्तन     भी  शायद इनको  परिभाषित करता हो
जब   रिश्तों  की    मीयादें     हों   होली  से  दीवाली  तक

मेरी    जाती    कमी से लगते हो
किसी    खोई    ख़ुशी से लगते हो
जब से दुश्मन से मिलके आये हो
दोस्त, तुम अज़नबी से लगते हो


कुछ बातों कुछ संकेतों को प्यार समझ बैठे थे हम
कुछ वादों को जीवन का आधार समझ बैठे थे हम
नया  नहीं कुछ हुआ, भरोसे  टूटा करते  आये  हैं,

हाँ, उधार को ग़लती से उपहार  समझ बैठे थे हम

-अमित

3 comments:

पारुल "पुखराज" said...

कुछ बातों कुछ संकेतों को प्यार समझ बैठे थे हम
कुछ वादों को जीवन का आधार समझ बैठे थे हम
नया नहीं कुछ हुआ, भरोसे टूटा करते आये हैं,
badhiya hay AMIT ji

anurag tripathi said...

जब से दुश्मन से मिलके आये हो
दोस्त, तुम अज़नबी से लगते हो
kya baat hai...

anurag tripathi said...

जब से दुश्मन से मिलके आये हो
दोस्त, तुम अज़नबी से लगते हो
kya baat hai...