आओ साथी जी लेते हैं
विष हो या अमृत हो जीवन
सहज भाव से पी लेते हैं
सघन कंटकों भरी डगर है
हर प्रवाह के साथ भँवर है
आगे हैं संकट अनेक, पर
पीछे हटना भी दुष्कर है।
विघ्नों के इन काँटों से ही
घाव हृदय के सी लेते हैं
आओ साथी जी लेते है
नियति हमारा सबकुछ लूटे
मन में बसा घरौंदा टूटे
जग विरुद्ध हो हमसे लेकिन
जो पकड़ा वो हाथ न छूटे
कठिन बहुत पर नहीं असम्भव
इतनी शपथ अभी लेते हैं
आओ साथी जी लेते है
श्वासों के अंतिम प्रवास तक
जलती-बुझती हुई आस तक
विलय-विसर्जन के क्षण कितने
पूर्णतृप्ति-अनबुझी प्यास तक
बड़वानल ही यदि यथेष्ट है
फिर हम राह वही लेते हैं
आओ साथी जी लेते हैं
7 comments:
बहुत सुन्दर, जीवन की उपासना चलती रहे।
प्रकाश पर्व की हार्दिक शुभकामनायें।
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (22/11/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
'जग विरुद्ध हो हमसे लेकिन
जो पकड़ा वो हाथ न छूटे'
बहुत खूब! कुछ याद आया:-
बांह जिन्हां दी पकड़िये
सर दीजे बांह न छोड़िये
हार्दिक बधाई!
इतनी शपथ अभी लेते हैं
आओ साथी जी लेते है!
एक सरल एवं विशिष्ट गीत!
सरल है संदेश परंतु आचरण कठिन है। जीवन के महतत्व को बेहद सहजता से कह दिया। आभार।
बहुत बढ़िया रचना -
बहुत सकारात्मक सोच-
जीवन जीने के लिए यही आवश्यक है ...!!
बधाई एवं शुभकामनाएं
सकारात्मक सोच व संतोषी स्वभाव से ही जीवन खुशहाल रह सकता है।
बहुत अच्छा संदेश देती है आपकी कविता।
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