Wednesday, February 10, 2010

गज़ल - इक लम्हा खु़शी के लिये दुनिया सफ़र में है (पुरानी)

१९८६-८७ में लिखी गयी गज़ल प्रेषित कर रहा हूँ|
इक लम्हा खु़शी के लिये दुनिया सफ़र में है
मालूम नहीं दर तेरा किस रहगुजर में है

मुरझा चुकी हैं खिल के तमन्नायें नामुराद
गोया हमारा दिल भी किसी तंग दर में है

मैं भी बुझूँगा एक दिन और तू भी आफ़ताब
फिर इतनी तपिश क्यूँ तेरी तिरछी नज़र में है

फ़ित्रत है एक जैसी सितारों की जमी की
इक जल रहे हैं दूसरी जलते शहर में है

ऐ तालिबाने-फ़िरक़ापरस्ती कभी तो सोच
ये आग फूँक देगी जो कुछ तेरे घर में है

हम आये मदावाये-दिलआज़ुर्दः को 'अमित'
इक वहशियाना भूक मिरे चाराग़र में है

अमित (१९८६)

तालिबाने-फ़िरक़ापरस्ती = साम्प्रदायिकता के विद्यार्थीगण। मदावाये-दिलआज़ुर्दः = दुखी हृदय के उपचार के लिये। चाराग़र=उपचारक, वैद्य।

7 comments:

अमिताभ मीत said...

क्या बात है भाई. बहुत दिनों बाद इतनी अच्छी ग़ज़ल पढने को मिली. दिन बन गया भाई, वाह !!

मैं भी बुझूँगा एक दिन और तू भी आफ़ताब
फिर इतनी तपिश क्यूँ तेरी तिरछी नज़र में है

वाह वाह !!

bijnior district said...

शानदार गजल

वीनस केसरी said...

बहुत उम्दा किस्म के शेरों के लिये बधाई...
बहुत बेहतरीन गजल है
पढ़वाने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद


आपका स्वागत है तरही मुशायरे में भाग लेने के लिए सुबीर जी के ब्लॉग सुबीर संवाद सेवा पर
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Udan Tashtari said...

वाह जी, बहुत उम्दा!

पारुल "पुखराज" said...

मुरझा चुकी हैं खिल के तमन्नायें नामुराद
गोया हमारा दिल भी किसी तंग दर में है

bahut khuub amit ji

Himanshu Pandey said...

"ऐ तालिबाने-फ़िरक़ापरस्ती कभी तो सोच
ये आग फूँक देगी जो कुछ तेरे घर में है

हम आये मदावाये-दिलआज़ुर्दः को 'अमित'
इक वहशियाना भूक मिरे चाराग़र में है"

इन दोनों के तो क्या कहिए । बेहद खूबसूरत । आभार ।

Narendra Vyas said...

बहुत अच्छी ग़ज़ल आभार!!