अब अंधेरों में उजालों से डरा करते हैं
ख़ौफ़, जुगनूँ से भी खा करके मरा करते हैं
दिल के दरवाजे पे दस्तक न किसी की सुनिये
बदल के भेष लुटेरे भी फिरा करते हैं
उनका अन्दाज़े-करम उनकी इनायत है यही
वो मेरे हक़ के लिये मेरा बुरा करते हैं
गुनाह वो भी किये जो न किये थे मैंने
यूँ कमज़र्फ़ों के किरदार गिरा करते हैं
तंज़ करके गयी बहार भी मुझपे ही 'अमित'
कभी सराब भी बागों को हरा करते हैं
ख़ौफ़, जुगनूँ से भी खा करके मरा करते हैं
दिल के दरवाजे पे दस्तक न किसी की सुनिये
बदल के भेष लुटेरे भी फिरा करते हैं
उनका अन्दाज़े-करम उनकी इनायत है यही
वो मेरे हक़ के लिये मेरा बुरा करते हैं
गुनाह वो भी किये जो न किये थे मैंने
यूँ कमज़र्फ़ों के किरदार गिरा करते हैं
तंज़ करके गयी बहार भी मुझपे ही 'अमित'
कभी सराब भी बागों को हरा करते हैं
अमित
शब्दार्थ:
अन्दाज़े-करम = कृपा करने का तरीका, इनायत = कृपा, कमज़र्फ़ों = तुच्छ लोगों, किरदार = चरित्र, तंज़ = कटाक्ष, सराब(फ़ारसी पुल्लिंग) = मृगतृष्णा या मृगजल।
5 comments:
दिल के दरवाजेँ पे दस्तक न किसी की सुनियेँ
बदल के भेष लुटेरे भी फिरा करते हैँ
उत्तम अति उत्तम अमित जी
are vaah ustaad....kyaa baat hai....
दमदार गज़ल.
दिल के दरवाजे पे दस्तक न किसी की सुनिये
बदल के भेष लुटेरे भी फिरा करते हैं
---वाह!
और मक्ते का शेर तो अर्थ समझने के बाद गज़इ ढा रहा है..
तंज़ करके गयी बहार भी मुझपे ही 'अमित'
कभी सराब भी बागों को हरा करते हैं
--वाह! क्या बात है।
"तंज़ करके गयी बहार भी मुझपे ही 'अमित'
कभी सराब भी बागों को हरा करते हैं"
बेहद खूबसूरत, आभार ।
achhi ghazal hai ...
तंज़ करके गयी बहार भी मुझपे ही 'अमित'
कभी सराब भी बागों को हरा करते हैं
maqta kaabil e tareef hai
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