Thursday, March 25, 2010

ग़ज़ल - वो मेरे हक़ के लिये मेरा बुरा करते हैं।


अब अंधेरों में उजालों से डरा करते हैं
ख़ौफ़, जुगनूँ से भी खा करके मरा करते हैं

दिल के दरवाजे पे दस्तक न किसी की सुनिये
बदल के भेष लुटेरे भी फिरा करते हैं

उनका अन्दाज़े-करम उनकी इनायत है यही
वो मेरे हक़ के लिये मेरा बुरा करते हैं

गुनाह वो भी किये जो न किये थे मैंने
यूँ कमज़र्फ़ों के किरदार गिरा करते हैं

तंज़ करके गयी बहार भी मुझपे ही 'अमित'
कभी सराब भी बागों को हरा करते हैं

अमित

शब्दार्थ:
अन्दाज़े-करम = कृपा करने का तरीका, इनायत = कृपा, कमज़र्फ़ों = तुच्छ लोगों, किरदार = चरित्र, तंज़ = कटाक्ष, सराब(फ़ारसी पुल्लिंग) = मृगतृष्णा या मृगजल।

5 comments:

Arvind Mishra said...

दिल के दरवाजेँ पे दस्तक न किसी की सुनियेँ
बदल के भेष लुटेरे भी फिरा करते हैँ

उत्तम अति उत्तम अमित जी

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

are vaah ustaad....kyaa baat hai....

देवेन्द्र पाण्डेय said...

दमदार गज़ल.
दिल के दरवाजे पे दस्तक न किसी की सुनिये
बदल के भेष लुटेरे भी फिरा करते हैं
---वाह!
और मक्ते का शेर तो अर्थ समझने के बाद गज़इ ढा रहा है..
तंज़ करके गयी बहार भी मुझपे ही 'अमित'
कभी सराब भी बागों को हरा करते हैं
--वाह! क्या बात है।

Himanshu Pandey said...

"तंज़ करके गयी बहार भी मुझपे ही 'अमित'
कभी सराब भी बागों को हरा करते हैं"

बेहद खूबसूरत, आभार ।

स्वप्निल तिवारी said...

achhi ghazal hai ...

तंज़ करके गयी बहार भी मुझपे ही 'अमित'
कभी सराब भी बागों को हरा करते हैं

maqta kaabil e tareef hai