रे कंजूस भला वर्षा में है तेरा क्या घाटा
कल बादल को कस कर डाँटा
आज सवरे इधर-उधर कुछ धुँधले बादल आये
कुछ फुहार के जैसी छोटी-छोटी बूँदे लाये
मैंने कहा कि निकले हो क्या करने सैर सपाटा?
उनको मैंने फिर से डाँटा
बाद दोपहर घिर आये कुछ बादल काले-काले
गरजे-तड़के बहुत देर पर खुले न उनके ताले
हुआ क्रोध से लाल खींच कर मारा एक झपाटा
अबकी बड़ी जोर से डाँटा
और शाम होते-होते फिर आई बुद्धि ठिकाने
सचमुच भीग गया मैं नभ पर लगे मेघ घहराने
आँख खुली, पत्नी गुस्से में, क्यों मारा था चांटा?
अब मैं खींच गया सन्नाटा
आँखें मल कर वस्तुस्थिति को समझा और बताया
अनावृष्टि ने मन पर मेरे था अधिकार जमाया
किसी तरह समझाकर मैंने पत्नी का भ्रम काटा
उनका ज्वार हुआ तब भाटा
कल बादल को कस कर डाँटा।
सामुदायिक बिस्तर (कम्युनिटी बेड)
12 years ago
3 comments:
बादलो को डांट अच्छी लगी ...... फिर कसके गीला किया . गजब की सोच से लबरेज रचना .
मजेदार रचना !!
अरे भई, पहले डांटना था, कम से बरसात में इतनी देर तो न करता।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
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