अहम की ओढ़ कर चादर
फिरा करते हैं हम अक्सर
अहम अहमों से टकराते
बिखरते चूर होते हैं
मगर फिर भी अहम के हाथ
हम मजबूर होते हैं
अहम का एक टुकड़ा भी
नया आकार लेता है
ये शोणित-बीज का वंशज
पुनः हुंकार लेता है
अहम को जीत लेने का
अहम पलता है बढ़-चढ़ कर
अहम की ओढ़ कर .....
विनय शीलो में भी अपनी
विनय का अहम होता है
वो अन्तिम साँस तक अपनी
वहम का अहम ढोता है
अहम ने देश बाँटॆ हैं
अहम फ़िरकों का पोषक है
अहम इंसान के ज़ज़्बात का भी
मौन शोषक है
अहम पर ठेस लग जाये
कसक रहती है जीवन भर
अहम की ओढ़ करे चादर ...
-- अमित
सामुदायिक बिस्तर (कम्युनिटी बेड)
13 years ago
13 comments:
बहुत शानदार एवं प्रवाहमय!
लाजवाब है आपका अहम पुराण ....... सच है इस पर जीतना आसान नही ........
बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
अहम् पर बहुत ही अहम कविता।
इससे पार पाने का रास्ता क्या है? आपके अनुसार तो यह सब जगह समाया है।
लाजवाब
happy birthday...!!
bahut hi saar purn kavita hai
har shabad sach
gahri soch
अमित जी, आपको जन्म दिन की शुभकामना यहाँ दे देते हैं.
bahut sundar man ko chhuti rachna.....
प्रबल प्रताप जी एवम् समीर लाल जी,
आपने जन्मदिन की शुभकामना यहाँ पर दी तो मैं सोचता हूँ आभार भी यहीं पर व्यक्त कर दूँ। अपना आशीर्वाद यूँ ही बनाये रखिये।
सादर
सिद्धार्थ जी,
इससे पार पाने का रास्ता होता तो अवश्य बताता। फिलहाल इससे सावधान रहना चाहिये। सावधानी ही बचाव है। मेरी समझ में इतना ही आता है।
बेहद सशक्त रचना ! आभार ।
वाकई अहं की कहानी बहुत ही लम्बी है।
ये शोणित-बीज का वंशज
पुनः हुंकार लेता है
अहम को जीत लेने का
अहम पलता है बढ़-चढ़ कर
अहम की ओढ़ कर .....
वाह आध्यात्मिक बिम्ब अदभुत है
सरित प्रवाह मई रचना हिंदी कविता है
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