Tuesday, January 19, 2010

एक सवैया (मत्तगयन्द)

संगम क्षेत्र को देख कर एक सवैया फूट पड़ा।
मत्तगयन्द सवैया में सात भगण (ऽ। ।) और और अन्त में दो गुरु होते हैं।
भानुसुता इस ओर बहे, उस ओर रमापति की पगदासी।
साधक सिद्ध सुजान जहाँ, रहते भर मास प्रयाग प्रवासी।
संगम तीर जुटे जब भीर, लगे जन वारिधि की उपमा सी।
धन्य हुआ यह जीवन जो, इस पुण्य धरा का हुआ अधिवासी।


अमित

3 comments:

अजित वडनेरकर said...

वाह वाह और वाह...
सुबह सुबह आनंद आ गया मत्तगयंद की मस्त गति देख कर।
बहुत खूब। बधाई इस बेहतरीन रचना के लिए। भाव तो उत्कृष्ट हैं ही, छंदसिद्धि से मन प्रसन्न है। मैं दिल से छंदबद्ध कविता का हामी हूं।

दिगम्बर नासवा said...

कमाल की रवानी है इस रचना में . मस्ती भरी ..... मज़ा आ गया .......

श्रद्धा जैन said...

waah Amith ji
aapki kalam mein jaadu hai