Saturday, August 15, 2009

हिन्दी ग़ज़ल - अच्छाई से डर लगता है।

सबको तुम अच्छा कहते हो, कानो को प्रियकर लगता है
अच्छे हो तुम किन्तु तुम्हारी अच्छाई से डर लगता है।

सुन्दर स्निग्ध सुनहरे मुख पर पाटल से अधरों के नीचे
वह काला सा बिन्दु काम का जैसे हस्ताक्षर लगता है।

स्थितियाँ परिभाषित करती हैं मानव के सारे गुण-अवगुण
मकर राशि का मन्द सूर्य ही वृष में बहुत प्रखर लगता है।

ज्ञानी विज्ञानी महान विद्वज्जन जिसमें कवि अनुरागी
वाणी के उस राजमहल में कभी-कभी अवसर लगता है।

विरह-तप्त व्याकुल अन्तर को जब हो प्रियतम-मिलन-प्रतीक्षा,
हर कम्पन सन्देश प्रेम का हर पतंग मधुकर लगता है।

अमित

Tuesday, August 4, 2009

नवगीत - सुख-दुख आना-जाना।

सुख-दुख आना-जाना साथी
सुख-दुख आना-जाना।

सुख की है कल्पना पुरानी
स्वर्गलोक की कथा कहानी
सत्य-झूठ कुछ भी हो लेकिन
है मन को भरमाना साथी
सुख-दुख आना-जाना।

सुख के साधन बहुत जुटाये
सुख को किन्तु खरीद न पाये
थैली लेकर फिरे ढूँढते
सुख किस हाट बिकाना साथी
सुख-दुख आना-जाना।

आस-डोर से बँधी सवारी
सुख-दुख खीचें बारी-बारी
कहे कबीरा दो पाटन में
सारा जगत पिसाना साथी
सुख-दुख आना-जाना।

वनवासी जीवन में सुख था
शशिमुख के आगे रवि मुख था
किन्तु स्वर्ण-मृग की इच्छा में
लंका हुआ ठिकाना साथी
सुख-दुख आना-जाना।

दुखमय जगत काल की फाँसी
देख कुमार हुआ सन्यासी
शोध किया तो पाया तृष्णा-
पीछे जग बौराना साथी
सुख-दुख आना-जाना।

जब-जब किया सुखों का लेखा
सुख को पता बदलते देखा
किन्तु सदा ही इसके पीछे
दुख पाया लिपटाना साथी
सुख-दुख आना-जाना।

जीवन की अनुभूति इसी में
द्वेष इसी में प्रीति इसी में
इसी खाद-पानी पर पलकर
जीवन कुसुम फुलाना साथी
सुख-दुख आना-जाना।

Tuesday, July 28, 2009

हे मानस के हंस तुम्हारा वंदन। तुलसी जयंती पर (२८-०७-०९)

हे मानस के हंस तुम्हारा वंदन।

गलित रूढियों के दल-दल में
डूबा था जग सारा
मानस का उपहार ललित देकर
तब हमे उबारा
लोकनीति, मर्यादा रक्षण
काटे जो भवबन्धन
हे मानस के हंस तुम्हारा वंदन।

विनययुक्त दी विनयपत्रिका
गीतावलि प्रभुलीला
पूर्वपीठिका मानस की ज्यौं
कवितावली सुशीला
स्वयं तिलक लगवाने आये थे
तुमसे रघुनन्दन
हे मानस के हंस तुम्हारा वंदन।

रामचरित लीला का तुमने
प्रचलन किया जगत में
शैव और वैष्णव भक्तों को
किया एक पंगत में
उपकृत आज समाज तुम्हारा
करता है अभिनन्दन
हे मानस के हंस तुम्हारा वंदन।

गूढ़ दार्शनिक तत्वों को
जब सरल शब्द में ढाला
इक भदेस भाषा ने पाया
अमृतरस का प्याला
घूम रहा है धर्मध्वजा लेकर
अब तक वह स्यंदन
हे मानस के हंस तुम्हारा वंदन।

माता-पिता विहीन, तिरष्कृत
बाल्यकाल कठिनाई
गुरु का कृपा प्रसाद, ज्ञान के
साथ काव्य निपुनाई
जिसे किया स्पर्श
सुवासित हुआ कि जैसे चंदन
हे मानस के हंस तुम्हारा वंदन।

कल बादल को कस कर डाँटा

रे कंजूस भला वर्षा में है तेरा क्या घाटा
कल बादल को कस कर डाँटा

आज सवरे इधर-उधर कुछ धुँधले बादल आये
कुछ फुहार के जैसी छोटी-छोटी बूँदे लाये
मैंने कहा कि निकले हो क्या करने सैर सपाटा?
उनको मैंने फिर से डाँटा

बाद दोपहर घिर आये कुछ बादल काले-काले
गरजे-तड़के बहुत देर पर खुले न उनके ताले
हुआ क्रोध से लाल खींच कर मारा एक झपाटा
अबकी बड़ी जोर से डाँटा

और शाम होते-होते फिर आई बुद्धि ठिकाने
सचमुच भीग गया मैं नभ पर लगे मेघ घहराने
आँख खुली, पत्नी गुस्से में, क्यों मारा था चांटा?
अब मैं खींच गया सन्नाटा

आँखें मल कर वस्तुस्थिति को समझा और बताया
अनावृष्टि ने मन पर मेरे था अधिकार जमाया
किसी तरह समझाकर मैंने पत्नी का भ्रम काटा
उनका ज्वार हुआ तब भाटा
कल बादल को कस कर डाँटा।

Saturday, July 11, 2009

ग़ज़ल - फिक्र आदत में ढल गई होगी।

फ़िक्र आदत में ढल गई होगी अब तबीयत सम्हल गई होगी गो हवादिस नहीं रुके होंगे उनकी सूरत बदल गई होगी जान कर सच नहीं कहा मैंने बात मुँह से निकल गई होगी मैं कहाँ उस गली में जाता हूँ है तमन्ना मचल गई होगी जिसमें किस्मत बुलन्द होनी थी वो घड़ी फिर से टल गई होगी खा़के-माजी की दबी चिंगारी उसकी आहट से जल गई होगी खता मुआफ़ के मुश्ताक़ नजर बेइरादा फ़िसल गई होगी मुन्तजिर मुझसे अधिक थी आँखें बूँद बरबस निकल गई होगी नाम गुम हो गये हैं खत से 'अमित' उनको स्याही निगल गई होगी। -अमित मुश्ताक़ = उत्सुक, मुन्तजिर= प्रतीक्षारत, हवादिस= हादसा का बहुवचन Mob:

Saturday, July 4, 2009

कविता कोश की तीसरी वर्षगाँठ पर हमारी बधाई (दिनांक ०५जुलाई)

व्याप्त है विपुल हर्ष कविता कोश ने पूर्ण किये तीन वर्ष कविता का यह महासागर बनने को उद्यत है हिन्दी काव्य का विश्वकोश। वह दिन दिखता है मुझे हस्तामलक समान जब कविता कोश में होगा काव्य की हर जिज्ञासा का समाधान। बधाई! उन सभी को जिनके प्रयत्नो का सुफल हुआ मूर्तिमान। उनको है नमन, उनकी वन्दना उनका सारस्वत सम्मान बहुत कुछ किया आपने पर बहुत कुछ अब भी है शेष जिसके लिये हम सभी की शुभकामानायें हैं अशेष इस महायज्ञ में हम भी सहभागी हैं समिधा और हविस्य लेकर जितनी जिसकी है सामर्थ्य सर्वस्व लेकर हमारी मंगल कामनायें! एक दिन हम कविता कोश को हिन्दी-काव्य का विश्वकोश बनायें सादर अमित Mob:

Saturday, June 27, 2009

नवगीत - गर्मी के दिन।

भोर जल्द भाग गई लू के डर से
साँझ भी निकली है बहुत देर में घर से
पछुँआ के झोकों से बरसती अगिन
गर्मी के दिन।
पशु-पक्षी पेड़-पुष्प सब हैं बेहाल
सूरज ने बना दिया सबको कंकाल
माँ चिड़िया लाती पर दाने बिन-बिन
गर्मी के दिन।
हैण्डपम्प पर कौव्वा ठोंक रहा टोंट
कुत्ता भी नमी देख गया वहीं लोट
दुपहरिया बीत रही करके छिन-छिन
गर्मी के दिन।
बच्चों की छुट्टी है नानी घर तंग
ऊधम दिन भर, चलती आपस की जंग
दिन में दो पल सोना हो गया कठिन
गर्मी के दिन।
शादी बारातों का न्योता है रोज
कहीं बहूभोज हुआ कहीं प्रीतिभोज
पेट-जेब दोनों के आये दुर्दिन
गर्मी के दिन।
गर्मी के दिन।


-अमित

Friday, June 26, 2009

ग़ज़ल तरही - साफ इन्कार में ख़ातिर शिकनी होती है

इल्तिजा उसकी मुहब्बत में सनी होती है
साफ इन्कार में ख़ातिर शिकनी होती है

यूँ कमानी की तरह भौंह तनी होती है
नज़र पड़ते ही कहीं आगजनी होती है

अपना ही अक्स नज़र आती है अक्सर मुझको
वो हर इक चीज जो मिट्टी की बनी होती है

सौदा-ए-इश्क़ का दस्तूर यही है शायद
माल लुट जाये है तब आमदनी होती है

मैं पयाले को कई बार लबों तक लाया
क्या करूँ जाम की क़िस्मत से ठनी होती है

इतने अरमानो की गठरी लिये फिरते हो ’अमित’
उम्र इंसान की आख़िर कितनी होती है


- अमित

Wednesday, June 17, 2009

गीत - स्मृति के वे चिह्न


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स्मृति के वे चिह्न उभरते हैं, कुछ उजले कुछ धुंधले-धुंधले।
जीवन के बीते क्षण भी अब, कुछ लगते है बदले-बदले।

जीवन की तो अबाध गति है, है इसमें अर्द्धविराम कहाँ
हारा और थका निरीह जीव, ले सके तनिक विश्राम जहाँ
लगता है पूर्ण विराम किन्तु, शाश्वत गति है वो आत्मा की
ज्यों लहर उठी और शान्त हुई, हम आज चले कुछ चल निकले।
स्मृति के वे चिह्न उभरते हैं ... ...

छिपते भोरहरी तारे का, सन्ध्या में दीप सहारे का
फिर चित्र खींच लाया है मन, सरिता के शान्त किनारे का
थी मनश्क्षितिज में डूब रही, आवेगोत्पीड़ित उर नौका
मोहक आँखों का जाल लिये, आये जब तुम पहले-पहले।
स्मृति के वे चिह्न उभरते हैं ... ...

मन की अतृप्त इच्छाओं में, यौवन की अभिलाषाओं में
हम नीड़ बनाते फिरते थे, तारों में और उल्काओं में
फिर आँधी एक चली ऐसी, प्रासाद हृदय का छिन्न हुआ
अब उस अतीत के खँडहर में, फिरते हैं हम पगले-पगले।
स्मृति के वे चिह्न उभरते हैं ... ...


अमित

Sunday, June 14, 2009

गीत - जब जीवन की साँझ ढले

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जब जीवन की साँझ ढले तुम दीप जलाने आ जाना।
कुछ प्रभात कुछ दोपहरी की याद दिलाने आ जाना।

कंचन-कंचन घूम रहीं तुम मैं चन्दन-चन्दन फिरता
मैने तो संतोष कर लिया तुमको ठाँव नहीं मिलता
जब मृगतृष्णा का भ्रम टूटे प्यास बुझाने आ जाना
जब जीवन की साँझ ढले ... ... ...

चढ़ा हुआ सौन्दर्य तुम्हारा मेरी साँसें घुटी-घुटी
तुमने धरा छोड़ दी कब की चाल मेरी घिसटी-घिसटी
यौवन पवन शिथिल हो जाये मन बहलाने आ जाना
जब जीवन की साँझ ढले ... ... ...

लघु को विस्तृत कर देते जो कुछ प्रबुद्ध ऐसे भी हैं
रस पीकर अदृष्य हो जाते रसिक शुद्ध ऐसे भी हैं
जब मेरा मूल्यांकन कर लो अंक बताने आ जाना
जब जीवन की साँझ ढले ... ... ...


अमित (१९८४)

Friday, June 12, 2009

हे! अलक्षित।



व्याप्त हो तुम यों सृजन में
नीर जैसे ओस कन में
हे! अलक्षित।
तुम्हे
जीवन में, मरण में
शून्य में वातावरण में
पर्वतों में धूल कण में
विरह
में देखा रमण में
मनन
के एकान्त क्षण में
शोर
गुम्फित आवरण में
हे
! अनिर्मित।
तुम
कली की भंगिमा में
कोपलों
की अरुणिमा में
तारकों
में चन्द्रमा में
भीगती
रजनी अमा में
पुण्य
-सलिला अनुपमा में
ज्योत्स्ना
की मधुरिमा में
हे
! प्रकाशित।
गूढ़
संरचना तुम्हारी
तार्किक
की बुद्धि हारी
सभी
उपमायें विचारी
नेति
कहते शास्त्रधारी
बनूँ
किस छवि का पुजारी
मति
भ्रमित होती हमारी
हे
! अप्रस्तुत।
स्वयं
अपना भान दे दो
दृष्टि
का वरदान दे दो
रूप
का रसपान दे दो
नाद
स्वर का गान दे दो
और
अनुपम ध्यान दे दो
मुझे
शाश्वत ज्ञान दे दो
हे
! अयुग्मित।


अमित

Tuesday, June 2, 2009

ग़ज़ल - जो कुछ हो सुनाना उसे बेशक़ सुनाइये


जो कुछ हो सुनाना उसे बेशक़ सुनाइये
तकरीर ही करनी हो कहीं और जाइये

याँ महफ़िले-सुखन को सुखनवर की है तलाश
गर शौक आपको भी है तशरीफ़ लाइये।

फूलों की जिन्दगी तो फ़क़त चार दिन की है
काँटे चलेंगे साथ इन्हे आजमाइये।

क‍उओं की गवाही पे हुई हंस को फाँसी
जम्हूरियत है मुल्क में ताली बजाइये।

रुतबे को उनके देख के कुछ सीखिये 'अमित'
सच का रिवाज ख़त्म है अब मान जाइये।

-- अमित